छूअला पर लुत्ती जरइबे करी

छूअला पर लुत्ती जरइबे करी

 

 

छूअला पर लुत्ती जरइबे करी

घाव टोअबऽ त दुखइबे करी

 

प्यार एगो मीठा तकलीफ हउए

याद आई त दरद बुझइबे करी

 

जे करजा खा के ना चुकाई ऊहे

देनदार के देखी त लुकइबे करी

 

राम नाम लेके दरिया पार करऽ

तहार नाव एकदिन खेवइबे करी

 

लइका के संस्कार द नाहीं त ऊ

महतारी  बाप के  सतइबे  करी

 

करम हर आदमी के प्रारब्ध हो जाला

कबो पाई पाई नियति चुकइबे करी

 

जब भी दुश्मन बरियार हो जाई

तब ऊ अवसर के भुनइबे करी

 

मीठ बनऽ पर हद से ढेर नाहीं

ढेर मीठ फल आखिर किरइबे करी

 

तू सिखऽ आ भले नाहीं सिखऽ पर

ठोकर हरदम लूर सिखइबे करी          ( लूर -सलीका, ढंग )

 

भगवान करेजा के कवि बनवले त

जब दुखाइ त गज़ल लिखइबे करी

 

जब रात ढल जाई त

 

जब रात ढल जाई त सहर मिली डगर में

चलत रहबऽ त हमसफर मिली डगर में

 

मंजिल की ओर सफर केतना तय भइल

मील की पत्थर से खबर मिली डगर में

 

हर समय चलला के इहे एगोे फायदा होला

नया आश लेके सगरो पहर मिली डगर में

 

जिनिगी के रंग ढंग जइसे सावन के मौसम

बस घाम, छाँव बूनी के गदर मिली डगर में

 

मिल के बिछड़ला के बाद ई पल ना भुलाइ

स्नेह में आँखिन के पुतली तर मिली डगर में

 

एह पथ में भाँति भाँति के लोग मिलत रही

ना मिटी उम्रभर तक जे याद मिली डगर में

 

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